Mahabharat Ki Kahani

•॥#भीम_का_पुतला॥#अंतिम_भाग 

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हस्तिनापुर के राजभवन में जब युधिष्ठिर पहुँचे तो उन्होंने देखा की महाराज धृतराष्ट्र निढाल से अपने सिंहासन पर बैठे हुए हैं। युधिष्ठिर ने प्रणाम करते हुए बहुत करुणा से कहा- महाराज आपका पुत्र मैं युधिष्ठिर अपने पाँचों भाइयों व हमारे संरक्षक वासुदेव कृष्ण सहित आपको प्रणाम करता हूँ। 



युधिष्ठिर के वचन कान में पढ़ते ही निढाल धृतराष्ट्र विद्युत की गति से खड़े हो गए और आह्लाद से भरे हुए बोले- भीऽऽम, भीम कहाँ है ? मैं सर्वप्रथम उसे ही अपने कंठ से लगाना चाहता हूँ, वो कुरूवंश का सर्वाधिक महान योद्धा है सर्वप्रथम उसका ही अभिनंदन होना चाहिए। 


कृष्ण देख रहे थे की धृतराष्ट्र के स्वर में उन्माद ध्वनित हो रहा है, उनकी शारीरिक चेष्टाएँ सामान्य नहीं बल्कि एक विक्षिप्त मनुष्य के भाँति हैं। धृतराष्ट्र के मुख से अपना गौरवगान सुनकर भीम आनंद से धृतराष्ट्र की ओर बढ़ने लगे कि तभी श्रीकृष्ण ने उनके हाथ को पकड़ा और बहुत शक्ति से भीम को पीछे धकेल दिया व अपने दोनों हाथों से भीम की लौहप्रतिमा को उठाकर नेत्रहीन धृतराष्ट्र के सामने रखते हुए कहा- भीम आपके सामने ही खड़े हैं महाराज। 


धृतराष्ट्र ने पूरी शक्ति से भीम की प्रतिमा को अपने हाथों में जकड़ लिया,  भीम कि लौह निर्मित प्रतिमा की कठोरता से धृतराष्ट्र का क्षोभ उन्माद में बदल गया। उन्मादी व्यक्ति को सत्य असत्य का भेद नहीं होता धृतराष्ट्र ने अपने समस्त क्रोध को अपनी भुजाओं में एकत्र करते हुए विक्षिप्त स्वर में कहा- अच्छा ! तो तुम मेरी भुजाओं की शक्ति को चुनौती दे रहे हो ? भीम मैं अपनी भुजाओं से मेरु पर्वत को भी चूर कर सकता हूँ फिर तुम तो पशुवत आचरण करने वाले एक सामान्य मनुष्य हो। ये कहते हुए धृतराष्ट्र ने पूरी शक्ति से उस लौह प्रतिमा को चपेट दिया प्रतिमा चूर चूर हो गयी। धृतराष्ट्र की भुजाओं और वक्ष से उसका अपना ही लहू बहने लगा, रक्त की उष्णता से धृतराष्ट्र को लगा कि भीम मर चुका है। 


सभाकक्ष में उपस्थित सभी जन स्तब्ध से इस भीषण कृत्य को देख रहे थे, वास्तविकता का ज्ञान होते ही भीम ने कृतज्ञता और प्रशंसा के भाव से भरे हुए कृष्ण की ओर देखा किंतु कृष्ण पूरी एकाग्रता से धृतराष्ट्र को देख रहे थे। प्रतिशोध का ज्वार उतरने के बाद अब धृतराष्ट्र का विवेक जागृत हुआ, उसे अपने किए पर पश्च्याताप होने लगा उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी वो विलाप करते हुए कहने लगा- हे ईश्वर मुझसे यह कैसा पाप हो गया ? मैंने प्रतिशोध की ज्वाला में जलकर अपने ही हाथों से अपने भाई के पुत्र का वध कर दिया, मैंने उस पुत्र को मार डाला जिसके जीवन और रक्षण का दायित्व मेरा था, मैंने उस भीम को समाप्त कर दिया जो मेरा सहारा था.. अपने कलुष और अविवेक से प्रेरित होकर किए गए इस जघन्य अपराध के लिए मुझे रौरव नरक की यातना देना परमात्मा। फिर शून्य में देखते हुए बोले- कृष्ण, तुम तो मुझे रोक सकते थे पुत्र ? मैं इस सत्य को जानता हूँ कि तुम्हें निश्चित ही मेरे मन में पल रहे पाप का ज्ञान था, तब क्यों नहीं तुमने मुझे इस अमानुषिक कृत्य को करने से रोका जिसका कोई प्रायश्चित भी नहीं है ? हा भीम, हा भीम मुझे क्षमा करना पुत्र कहते हुए नेत्रहीन धृतराष्ट्र अपने ही हाथों से अपनी छाती पीटने लगा, वो शोक से भरकर अपने ही सिर को धरती पर पटकने लगा। 


श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र को स्थिर नेत्रों देखते हुए गंभीर स्वर में कहा- विषाद त्यागें महाराज आपके क्रोध का भाजन भीम नहीं उनकी प्रतिमा बनी है, आपके भ्रातज भीमसेन अभी जीवित हैं। 


अपनी भुजाओं की शक्ति से पर्वताकार लौह प्रतिमा को चूर-चूर कर देने वाला बलशाली धृतराष्ट्र अचानक एक निरीह अशक्त वृद्ध की भाँति अनुभूत करने लगा। अपने भावनात्मक आवेग के निकल जाने से धृतराष्ट्र शक्तिहीन हो चुका था, वो समझ रहा था कि अब वो चाहकर भी किसी का हित-अहित नहीं साध सकता। 

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द्वापर में घटी इस घटना को यदि कलियुग की कसौटी पर कसा जाए तो कभी-कभी मुझे लगता है कि मीडिया या सोशल मीडिया के मंच भी भीम की लौह प्रतिमा के जैसे ही सत्ता सम्पन्न शक्तियों के द्वारा बहुत सोच समझकर हमारे सामने रखे गए हैं, जहां पर हम भी नेत्रहीन महाराज धृतराष्ट्र की भाँति व्यक्ति-व्यवस्था, स्थिति-परिस्थिति के विरुद्ध अपने हृदय में उत्पन्न रोष, आक्रोश, संतोष-असंतोष, सहमति-असहमति को निकालकर रिक्त, मुक्त होते हुए अशक्त हो जाते हैं परिणामस्वरूप हमारे मन का भावनात्मक उद्वेलन किसी कल्याणकारी जनआंदोलन में नहीं बदल पाता, क्योंकि मनोविज्ञान कहता है कि भावनात्मक विस्फोट होने के बाद भावनाओं का वेग, उनकी शक्ति क्षीण हो जाती है तब समाज हर उस व्यक्ति, व्यवस्था, स्थिति, परिस्थिति के प्रति स्वीकार के भाव से भर जाता है जिसे वो अभी तक अपने लिए अकल्याणकारी मान रहा था। 


द्वापर युग में सत्य की रक्षा के लिए भीम के पुतले को राजा धृतराष्ट्र के सामने खड़ा किया गया था, किंतु कलियुग में असत्य की रक्षा के लिए सोशल मीडिया रूपी पुतले को जनता-जनार्दन के हाथों में सौंप दिया गया है क्योंकि कलियुग अर्थात् मशीनी युग का अधिष्ठाता दानवराज कलि इस सत्य को जानता है कि युग भले ही बदल जाए लेकिन मानव का मनोविज्ञान नहीं बदलता। 


यदि हम चाहते हैं कि सिर्फ़ दृष्टि ही नहीं दृश्य भी बदले तब हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमारी भावनात्मक शक्ति ही संसार के सृजन और विध्वंस का कारण होती है। भावनाओं का व्यर्थ अपव्यय शुभ नहीं होता, भावनाओं को उपयुक्त स्थान और उचित समय पर पूरी तीव्रता के साथ व्यक्त करना ही कल्याणकारी होता है। हमें चाहिए कि हम भगवान कृष्ण की भाँति यंत्र, तंत्र और मंत्र कि शक्ति का सदुपयोग करते हुए पूरे विश्व को उनके द्वारा दिए गए महामंत्र “वसुधैव कुटुम्बकम्” के भाव से भर दें। शिवम् भवतु~#आशुतोष_राना ??

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