राजनीति पर विद्वानों का दृष्टिकोण Politics

RAJNITI KO KARIB SE JANE …….

राजनीति समाज के संगठित जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क्रियाकलाप है। सामान्यत: यदि हम यह बताने की कोशिश करें कि समग्रता के स्तर पर देखें तो सामाजिक या राजनीतिक चिंतन के बिना जीवन कठिन है तो छूटते ही उत्तर मिलेगा कि नहीं, आप ग़लत हैं।
लोग अपने आर्थिक तथा राजनीतिक क्रियाकलाप में जैसा व्यवहार करते हैं वैसा क्यों और कैसे करते हैं? इसका व्यवसिथत अध्ययन करना आवश्यक है। राजनीति का अध्ययन यही करने की कोशिश करता है, और राजनीतिक व्यवहार लगभग पूर्ण रूप से आर्थिक तथा सामाजिक व्यवहार से जुड़ा हुआ है और उधर आर्थिक तथा सामाजिक व्यवहार राजनीतिक व्यवहार से।
इन दिनों युवा लोग बहुधा गर्व की भावना से घोषित करते देखे जाते हैं कि ‘राजनीति में मेरी कोर्इ दिलचस्पी नहीं है। उनकी दृषिट में राजनीति व्यäगित तथा दलगत लाभों के लिए राज-सत्ता में स्थान प्राप्त करने की जोड़-तोड़ की अधम कला है। अपने कार्यकारी जीवन में भी उन्हें ‘राजनीतिज्ञ कहलाने की कोर्इ चाह नहीं होती। दरअसल यह शब्द धीरे-धीरे एक गाली बन गया है।
परन्तु जहाँ तक राजनीति की अवधारणा का संबंध है, उपयर्ुä धारणा नितान्त अज्ञान और निरर्थकता से भरी हुर्इ है। वस्तुत: हम सभी राजनीतिज्ञ हैं। हम जो-कुछ भी कहते या करते हैं उसमें एक सिथति अपना रहे होते हैं। हमें पसंद हो या न हो, वह सिथति राजनीतिक ही है। कारण, राजनीति का संबंध जीवन की हर बात से है। हमें क्या शिक्षा लेनी है और लेनी है या नहीं लेनी है, हमें कौन-सा काम मिलेगा और मिलेगा या नहीं मिलेगा, हमें अपने खचो± की भरपार्इ करने और अपना तथा अपने परिवार का जीवन चलाने के लिए कितने पैसे की जरूरत होगी, हम कितना पैसा कमा सकते हैं या हमें कितना पैसा कमाना चाहिए और उसमें से मुझे कितने की जरूरत है और कितना राज्य को करों के रूप में देना चाहिएµये तमाम प्रश्न राजनीतिक प्रश्न हैं। क्या हमारी शिक्षा और जीवन की तैयारी वैसी ही होनी चाहिए जैसी हर एक की है या हमारे अलावा कुछ अन्य लोगों को हमसे ज्यादा या कम अवसर होने चाहिए? जिसे हम अपनी निजी संपत्ति कहते हैं वह एकांत रूप से हमारी है या होनी चाहिए या वह अन्तत: पूरे समाज और राष्ट्र की है या होनी चाहिए या अपनी संपत्ति का अपनी मर्जी के मुताबिक चाहे जो करने का हमें अधिकार हो सकता है या होना चाहिए, ये सब भी राजनीतिक प्रश्न हैं। दूसरे शब्दों में, किसी की व्यäगित या सामूहिक स्वतंत्राता, दूसरों के संदर्भ में समानता, न्याय, अधिकार और कत्र्तव्य ये सब राजनीतिक क्षेत्रा के हिस्से हैं।
हम किसी ‘अवांतर भूमि (नो मेंस लैंड) में या किसी समुæ के बीच में अथवा बाहरी अंतरिक्ष समुæ में नहीं रह रहे हैं। हम हमेशा किसी राज्य के क्षेत्रााधिकार में या उसके अधीन रहते हैं। उस राज्य के अपने कानून हैं, नियम हैं, नीतियाँ हैं, और वे उसके रुझान के अनुसार हैं। इसलिए जब हम यह रुख अपनाते हैंµऔर वस्तुत: बहुत-से लोग ऐसा रुख अपनाते भी हैंµकि हम तो केवल इस खेल के नियमों का पालन कर रहे हैं और अपना जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं तो यह भी एक राजनीतिक रुख ही है, क्योंकि इसका मतलब सिर्फ यह है कि हमने अपने आचरण (अनजाने में ही सही) सेे यथासिथति को, वह चाहे जैसी भी है, स्वीकार कर लिया है। यदि हम दूसरों के मुकाबले समाज में अधिक सुविधाजनक सिथति में हैं तो हमने उस सौदे को (शायद खुशी-खुशी) मंजूर कर लिया है और राजनीति का स्पर्श इसलिए नहीं करना चाहते हैं कि हमारा तो सबकुछ ठीक-ठाक ही चल रहा है। यदि हम सुविधाजनक सिथति में नहीं हैं या हमारा शोषण हो रहा है अथवा हमारे साथ खराब व्यवहार हो रहा है तो भी यही माना जाएगा कि अपनी सिथति में सुधार करने का कोर्इ प्रयत्न किए बिना, हमने, वह जैसी भी है, स्वीकार कर लिया है। इसलिए जब हम यह कहते हैं कि हम राजनीति से दूर ही रहना चाहते हैं और उसके संबंध में कुछ नहीं करना चाहते तब भी वस्तुत: हम ऐसी राजनीतिक सिथति अपना रहे होते हैं जो मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के हक में है। अगर हम कुछ करने का निर्णय करते हैं तब तो किसी-न-किसी रूप में राजनीति में हैं ही। यदि कुछ नहीं करते तब भी हम राजनीति में हैं क्योंकि तब हम यथासिथति को उसकी अपनी मौजूदा शक्ल में कायम रहने में इस कारण से मदद कर रहे हैं कि हम उसे स्वीकार कर रहे हैं और उसके अधीन अपना कार्य-व्यापार चला रहे हैं।
तो साफ कहें तो हम जो-कुछ भी करते हैं या नहीं करते हैं वह किसी-न-किसी रूप में राजनीति है, चाहे उसे हम पसंद करें या न करें।
इस हालत में राजनीति के बारे में व्यवसिथत रीति से सोचना और मनन करना क्या बेहतर नहीं होगा? आरंभ करने का यह तरीका कैसा रहेगा कि हम इस बात पर गौर करें कि मानव-जाति अति प्राचीनकाल से अब तक राजनीति पर अवधारणात्मक दृषिट से किस प्रकार सोचती रही है? तब हो सकता है कि हम खुद तय कर पाएँ कि हमारे विचार में राजनीति क्या है या ज्यादा सही कहें तो हमारी राजनीति क्या है या होनी चाहिए।
मानव-चिंतन ने विकास का जो रास्ता अपनाया वह मुख्य रूप से इतिहास के द्वारा निर्धारित किया गया।
संबंधित कालों की राजनीतिक संरचनाओं ने बहुधा राजनीतिक दर्शन में कुछ खास-खास चिंतन-धाराओं को बढ़ावा दिया।
सामान्यत: राजनीति का संबंध राज्य और सरकार से रहा है और उसमें संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका, नौकरशाही आदि औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन का समावेश रहा है। इस प्रकार राजनीति शासन तथा बुनियादी राजनीतिक संबंधोंµराज्य और व्यä किे बीच के संबंधों और राज्यों के बीच के संबंधोंµका विज्ञान और कला है।

YUNANI DRASHTI यूनानी दृषिट

सच तो यह है कि राजनीति के अंगे्रजी पर्याय ‘पालिटिक्स का मूल ही यूनानी भाषा ‘पोलिस शब्द है। ‘पोलिस का अर्थ है समुदाय या जनता या समाज। अफलातून (प्लेटो) और अरस्तू (एरिस्टोटल) जैसे चिंतकों की दृषिट में ऐसी हर चीज राजनीति है जिसका संबंध ‘पूरे समुदाय को प्रभावित करने वाले सामान्य प्रश्नों से है। यूनानी दृषिट के अनुसार प्रत्येक मानव प्राणी की आत्म-सिद्धि के लिए समुदाय के जीवन में हिस्सेदारी प्रत्येक नागरिक के लिए आवश्यक है। सच तो यह है कि जो व्यä ‘िसमुदाय में नहीं रहता उसे या तो ‘र्इश्वर या पशु मानना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि बुनियादी तौर पर ‘मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है। याद रखने की बात है कि यूनानी छोटे-छोटे नगर राज्यों या समुदायों में संगठित थे। उसमें प्रत्येक पुरुष एक नागरिक था और वह समुदाय के मामलों पर फैसला करने के लिए संसद के ढंग की बैठकों में शामिल होता था। इसलिए व्यä किे लिए जो-कुछ निजी है और राज्य तथा सरकार के अंगों के साथ उसके आवश्यक संबंधों में जो-कुछ उसके लिए सार्वजनिक है उनके बीच आज हम जो फर्क करते हैं वैसा कोर्इ फर्क उन दिनों नहीं था। अत: यूनानी दृषिट को बहुत हद तक उस समय की परिसिथतियों और समाजशास्त्राीय वास्तविकताओं की उपज मानना चाहिए। इस प्रकार, यूनानी दृषिट में किसी नागरिक का पूरा व्यवहार उसका राजनीतिक रुख था और कुछ भी निजी नहीं था। यूनानियों ने इस बात पर भी जोर दिया कि राजनीति का प्रयोजन मनुष्यों को समुदाय में साथ-साथ जीने के योग्य बनाना और एक उच्च नैतिक जीवन व्यतीत करने की सामथ्र्य प्रदान करना है। दूसरे शब्दों में, राजनीति का उíेश्य नैतिक लक्ष्यों को अपनाने तथा उनका पालन करने में मनुष्यों को बढ़ावा देना और इस प्रकार उन्हें आध्यातिमक आत्म-सिद्धि प्राप्त करने में सहायता देना भी था। इस तरह राजनीति की यूनानी अवधारणा में मनुष्य,  समाज, राज्य और नीतिशास्त्रा इन सबके अèययन का समावेश था और इस विषय को धार्मिक और नैतिक दर्शन, अध्यात्म, नागरिकों के नागरिक प्रशिक्षण का पाठ और सत्ता-प्रापित के मार्ग का मिश्रण माना जाता था।

RAJNITI RAJYA KE RUP ME  राजनीति को राज्य का अध्ययन मानने वाली दृषिट

यूनान के ढंग के नगर राज्यों के âास और रोम साम्राज्य के उदय के साथ बड़े-बड़े साम्राज्यों की स्थापना के साथ राजनीति की अभिधारणा अनिवार्यत: अधिकाधिक राज्य के साथ जुड़ती चली गर्इ। मानव संगठन की मुख्य पद्धति के रूप में राज्य का विचार स्वीकार्य हो चला और खासतौर से मध्यकाल के अंत के बाद से राष्ट्र राज्यों के उदय के साथ यह विचार विकसित होता गया। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय कानून जैसे विषय भी राजनीति के अंग बन गए। यह विचार भी स्वीकार्य हो गया कि दंड-शä अिैर पुलिस तथा सैनिक बलों के प्रयोग द्वारा आज्ञा का पालन कराने पर राज्य का एकाधिकार होगा। राज्य का मतलब व्यवहारत: सरकार था, क्योंकि राज्य के नाम पर जो भी किया जाता था वह सरकार के द्वारा किया जाता था और इसलिए राज्य के अंगों तथा संस्थाओं का अध्ययन राजनीति के अèययन का विषय बन गया। राजतंत्रा, कुलीनतंत्रा, लोकतंत्रा, संघतंत्रा आदि शासन के विभिन्न रूप भी राज्य के अध्ययन का अंग बन गए। बीसवीं सदी में सरकारी संस्थाओं पर लोकमत, राजनीतिक दलों और नौकरशाही का प्रभाव भी राजनीति के अध्ययन में शामिल कर लिया गया। हरमन फाइनर की पुस्तक माडर्न डेमोक्रेसीज़ ;1909द्ध जैसी Ñतियों में यह प्रवृत्ति सामने आर्इ।

SAMAJIK PRAKRIYA सामाजिक प्रक्रिया के एक आयाम के रूप में राजनीति

कालान्तर में यह महसूस हुआ कि राज्य तथा राज्य की सरकार आदि संस्थाओं के अध्ययन के रूप में राजनीति नागरिकों के राजनीतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं की छानबीन पर्याप्त गहरार्इ से नहीं कर पाती। सामान्य नागरिक और उसका राजनीतिक जीवन उसके और जिस समाज तथा राज्य-व्यवस्था का वह अंग है उसके बीच की अंतक्र्रिया है। इसलिए राजनीति को समझने के लिए पूरी सामाजिक प्रक्रिया और संघटना को समझना जरूरी है।
लेकिन सामाजिक विज्ञान और सामाजिक संघटना तथा सामाजिक प्रक्रिया के एक आयाम के रूप में राजनीति के अध्ययन से विविध प्रकार की दृषिटयाँ प्रतिफलित होती हैं। अलग-अलग चिंतन-धाराएँ सामाजिक प्रक्रिया को अलग-अलग रूपों में देखती हैं। इतिहास के विभिन्न कालों में बहुत से लोगों और चिंतकों ने राजनीति की सामाजिक प्रक्रिया पर विचार किया है, लेकिन जिन चिंतन-धाराओं ने प्रभाव डाला है वे हैं: (क) उदारवादी दृषिट, (ख) माक्र्सवादी दृषिट, (ग) सर्वकल्याणवादी दृषिट, और (घ) शä किे रूप में राजनीति का अध्ययन करने वाली दृषिट।

(क) UDARWADI DRISHTI उदारवादी दृषिट : विभिन्न हितों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के औजार के रूप में राजनीति

यूरोप में कला के एक लंबे दौर में टामस हाब्स, जान लाक, एडम सिमथ, बेंथम, जे. एस. मिल, टी. एच. ग्रीन, लास्की, बार्कर, मैकआइवर, जे. बी. डी. मिलर, बर्नार्ड क्रिक, मारिस डुबर्जर आदि चिंतकों की Ñतियों में उदारवादी दृषिट का विकास हुआ। इस दृषिट का मुख्य सरोकार यह है कि मनुष्य एक स्वार्थी प्राणी है और अपने स्वार्थमय लक्ष्यों की प्रापित के प्रयत्न में उसका अन्य मनुष्यों से टकराव होना संभावित है, जिसके फलस्वरूप अव्यवस्था अनुशासनहीनता और अस्तव्यवस्तता की सिथति उत्पन्न हो सकती है। राजनीति ऐसी संघर्ष की सिथति को संभालने और ‘सुलह-समझौते का प्रबंध करने और इस प्रकार कानून-व्यवस्था, संरक्षण और सुरक्षा सुनिशिचत करने की सामाजिक प्रक्रिया का एक अंग है। इस दृषिट के अनुसार यही बातें न्याय के मूलभूत तत्त्व हैं।
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, उदारवादी दृषिट का विकास काल के एक लंबे दौर में हुआ। पूर्ववर्ती उदारवादी दृषिट यह थी कि स्वार्थ, उधमशीलता, सुख-समृद्धि की इच्छा तथा बुद्धि-विवेक से युä व्यä किे रूप में मानव प्राणी ही सिथरतापूर्ण समाज की आधार-शिला हो सकता है। हाब्स, लाक, एडम सिमथ आदि चिंतकों ने मनुष्य को स्वार्थी, अहंकारी प्राणी के रूप में देखा, जिसे केवल आत्म-परिक्षण से मतलब है और वह कोर्इ सामाजिक या नैतिक जीव नहीं है। उन्होंने यहाँ तक कहा कि और यह सब अच्छा ही है, क्योंकि जब प्रत्येक व्यä अपने स्वार्थ की सिद्धि करने की कोशिश करेगा तो एक समग्रता के रूप में समाज के कल्याण या सुख में

अधिकतम वृद्धि होगी।

बीसवीं सदी में (जब उसकी स्पर्धा में माक्र्सवादी चिंतन की प्रबल-धारा पहले ही उदित हो चुकी थी। उदारवादी दृृषिट में बदलाव आया और बेंटले, ट्रुमन, जी.डी.एच. कोल, लास्की और मैकआइवर जैसे चिंतकों ने यह राय जाहिर की समाज केवल स्वार्थी व्यäयिें से नहीं बना हुआ है, बलिक उसमें हित समूह भी शामिल हैं, जिनकी रचना शायद ऐसी सामाजिक, धार्मिक, सांस्Ñतिक, व्यापारिक, आर्थिक और राजनीतिक सोचों और प्रवृत्तियों के अनुसार हुर्इ हो जिनके माध्यम से मनुष्य अपने स्वाथो± और आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। लेकिन व्यäयिें की तरह समूह भी स्वार्थ और स्पर्धा पर आधारित हैं। समूह और समूहों की समग्रता के बीच हमेशा स्पर्धा चलती रहती है, और इस स्पèर्ाा में स्वतंत्रा समाज की भलार्इ है, सो इसकी छूट होनी चाहिए लेकिन इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसके फलस्वरूप हिंसा और अराजकता न फैले।
इस प्रकार उदारवादी दृषिट में मूलत: व्यä विस्तविक सामाजिक हस्ती है और समाज Ñत्रिम है। उदाहरण के लिए, हाब्स ने समाज को अनाजों के बोरे जैसा बताया, जिसमें अनाज के दाने व्यä हिैं, जो अपने-अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। बेंथम ने समाज को व्यäयिें के बीच संपन्न अनुबंध का परिणाम बताया और कहा कि सभी व्यä अिपने-अपने लक्ष्यों की प्रापित के पीछे पड़े हुए हैं। मैकफर्सन ने समाज की इस अवधारणा को ‘मुä बाजार समाज कहा, जो अपने-अपने स्वाथो± की सिद्धि में लगे व्यäयिें का मिलन स्थल है। यह समाज निब±ध इच्छा, स्पर्धा और अनुबंध पर आधारित है।
लेकिन इस प्रक्रिया में उदारवादी यह स्वीकार करते हैं कि व्यä-िव्यä किे बीच, समूह-समूह के बीच, विभिन्न आर्थिक वगो± के बीच, आर्थिक, भौगोलिक, सांस्Ñतिक, नस्ली आदि आधारों पर संगठित समूहों के बीच तरह-तरह के संघर्ष होने की संभावना है जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, उदारवाद बुनियादी तौर पर मानता है कि समाज की भूमिका इन विवादों में मध्यस्थता करने की है, लेकिन मिल जैसे वाद के उदारवादी लेखकों ने मनुष्य की सामाजिक प्रÑति और हरेक व्यä किे सहयोग करने की आवश्यकता पर जोर दिया। मैक्स वेबर और कार्ल मेनहाइम ने भी सहयोग की आवश्यकता पर बल दिया और वस्तुत: यह बताने का प्रयत्न किया कि स्पर्धा लाभदायक हो, इसके लिए कुछ सहयोग आवश्यक हैं, जिसके बिना अव्यवस्था और हिंसा फैलने का खतरा रहेगा।
इससे आगे उदारवादियों ने यह दृषिटकोण सामने रखा कि राजनीति को स्पर्धा की प्रक्रिया में संघषो को सामंजस्य में बदलने और आवश्यक सहयोग को बढ़ावा देने वाले प्रमुख उपाय के रूप में देखना चाहिए। लोगों के मिलन-स्थल में अर्थात समाज में, राजनीतिक प्रक्रिया के बिना कानून और व्यवस्था अनिवार्यत: बिखर जाएगी। राजनीतिक प्रक्रिया के बिना समाज में अपने-आप मेल-जोल नहीं हो सकता। प्रारंभिक उदारवादी चिंतक व्यäयिें के बीच मुä स्पर्धा चाहते थे और समाज द्वारा केवल खेल के नियम निर्धारित किए जाने के पक्ष में थे। लेकिन बीसवीं सदी के प्रारंभिक दौर से शुरूआत करके उदारवादी क्रमश: इस राय पर पहुँचे कि यदि व्यäयिें, समूहों, वगो आदि को लाभ की खातिर स्पर्धा करने के लिए स्वतंत्रा छोड़ दिया जाता है तो एक हिस्सा या वर्ग संपत्ति, सेवाओं, लाभ या सत्ता के अधिक बड़े हिस्से पर काबिज हुआ जा सकता है। इसलिए उन्होंने राजनीति की परिभाषा अधिक समानता, सामाजिक न्याय की सिथति सृजित करने के प्रयास और अंतर्निहित स्पर्धात्मक ढाँचे को नष्ट किए बिना विभेदों को मिटाने की प्रक्रिया के रूप में की। इस दृषिट की व्याख्या जे.डी.बी. मिलर कीKRATI 

THE NATURE OF POLITICS–

द नेचर आफ पालिटिक्स ;1965द्धए बर्नार्ड क्रिक की पुस्तक इन डिफेंस आफ पालिटिक्स ;1962द्ध और ए. लेफ्टविच की रचना व्हाट इज़ पालिटिक्स ;1984द्ध में देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए, बर्नार्ड क्रिक ने कहा कि ‘राजनीति ऐसा क्रियाकलाप है जिसके द्वारा शासन की किसी खास इकार्इ के अंदर आने वाले अलग-अलग हितों को, संपूर्ण समुदाय की भलार्इ और असितत्त्व के लिए उनके अलग-अलग महत्त्व को ध्यान में रखते हुए, उसी अनुपात में सत्ता में हिस्सा देकर उनके बीच सामंजस्य स्थापित किया जाता है। विभेद तब उत्पन्न होते हैं जब जो-कुछ व्यäगित है वह नीतिशास्त्रा का हिस्सा होता है लेकिन जो-कुछ सार्वजनिक है वह राजनीति का। नए उदारवादियों का कहना था कि राजनीति का त्याग करने का मतलब उसी चीज को नष्ट कर देना है जो सभ्य समाज की बहुलवादिता और विविधता को व्यवस्था प्रदान करती है, जो अराजक सिथति में पड़े बिना या किसी एकाकी सत्य का अत्याचार सहने को विवश हुए बिना विविधता का सुख भोगने की सुविधा देती है। क्रिक ने यह भी कहा: ‘राजनीतिक शासन का उदय विविधता की समस्या के कारण होता है और वह सब कुछ को केवल एक इकार्इ में बदल देने की कोशिश नहीं करता।… राजनीति अनुचित हिंसा के बिना विभाजित समाजों पर शासन करने का तरीका है, और अधिकतर समाज विभाजित ही हैं।
यदि इस उदारवादी दृषिट को स्वीकार कर लिया जाए कि राजनीति सामंजस्य की खोज की प्रक्रिया है तो अगला सवाल यह उठता है कि वह सामंजस्य ठीक-ठीक प्राप्त कैसे किया जाना है। मेलजोल स्थापित करने के मुख्य उपाय यह हैं: (क) कानून, (ख) राजनीतिक संस्थाएँ, (ग) समाज कल्याण, (घ) सांस्Ñतिक परंपराएँ आदि।
अधिकतर उदारवादी समाज परंपरागत कानून पर सबसे अधिक भरोसा करते आए हैं। दरअसल, उदारवादी संस्Ñतियाँ हमेशा अपने कानून के शासन पर गर्व करती देखी जाती हैं। माना जाता है कि दंड का भय कानून का पालन सुनिशिचत करता है और कानून तोड़ने से लोगों को रोकता है। कालान्तर में बहुत-से और भी काफी प्रभावकारी तरीके विकसित हो गए हैं, जैसे सार्वजनीन वयस्क मताधिकार, निर्वाचित लोकतंत्रा, राजनीतिक दल, गैर-सरकारी संगठन, मजदूर संघ आदि, जो समाज में व्यäगित और सामूहिक भागीदारी को बढ़ावा देते हैं।
लेकिन यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि जहाँ तक आर्थिक पद्धतियों का संबंध है, उदारवाद मुä बाजार पूँजीवाद तथा निर्बाध और निरंकुश निजी संपत्ति के पक्ष में है। परवर्ती उदारवादी, खास तौर से लास्की, कल्याण राज्य के पक्ष में थे, जिसमें सरकार बखूबी एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक भूमिका निभाती है, लेकिन कुल मिलाकर उदारवादी उस नमूने के हक में हैं जिसका नेतृत्त्व निजी व्यवसाय-जगत करता है और जिस पर उसी का प्रभुत्त्व है, और जिसमें आर्थिक मामलों में सरकार का न्यूनतम दखल ही है।

(ख)KARL MARKS  माक्र्सवादी दृषिट वर्ग-संघर्ष के रूप में राजनीति

कार्ल हेंडि्ररल माक्र्स ;1818.1883द्ध जर्मन यहूदी मूल के परम प्रभावशाली दार्शनिक थे। वे अर्थशास्त्राी और समाजवादी क्रांतिकारी थे। यों तो माक्र्स ने विविध प्रकार के अनेक मसलों पर विचार किया, लेकिन उनकी सबसे अèािक ख्याति वर्ग-संघर्ष के परिपे्रक्ष्य में राजनीतिक इतिहास के विश्लेषण को लेकर है। उसका सार कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो (घोषणापत्रा) की भूमिका के इस प्रथम वाक्य में निहित है: ‘अब तक के सभी समाजों का इतिहास वर्ग-संघषो± का इतिहास है।
माक्र्स का दर्शन मानव स्वभाव के संबंध में एक भिन्न दृषिट का प्रतिपादन करता है, जिसका आधार उनकी तद्विषयक दृषिट है। माक्र्स के चिंतन के अनुसार ‘चेतना से पहले असितत्व आता है, और अमुक व्यä किया है, यह इससे निर्धारित होता है कि वह कहाँ और कब हैµअंतर्जात व्यवहार से पहले सामाजिक संदर्भ का स्थान है; या दूसरे शब्दों में, मानव स्वभाव की एक मुख्य विशेषता अनुकूलन-क्षमता, अर्थात स्वयं को परिसिथति के अनुसार ढालने की क्षमता है। तथापि माक्र्सवादी चिंतन इस मूलभूत मान्यता पर आधारित है कि स्वभाव को रूपांतरित करना मानव प्रÑति है। माक्र्स के लिए, शारीरिक व्यापार के लिए यह एक स्वाभाविक क्षमता है, लेकिन मानव चेतना की सक्रिय भूमिका से इसका अंतरंग संबंध है। माक्र्स कहते हैं:
‘मकड़ा जो काम करता है वे बुनकर के कामों से मिलता-जुलता है, और मधुमक्खी कोशिकाओं के निर्माण में बहुत से वास्तुकारों को मात करती है परन्तु खराब से खराब वास्तुकार को भी जो बात कुशल से कुशल मधुमक्खी से भी अलग दिखाती है वह यह है कि वास्तुकार अपना महल पहले अपनी कल्पना में खड़ा करता है और उसके बाद ही वह वास्तव में उसका निर्माण करता है। (कैपिटल, जिल्द 1ए अध्याय 7ए भाग 1द्ध।
माक्र्स यह नहीं मानते थे कि सभी लोग एक ही तरह से काम करते हैं, या यह कि कोर्इ कैसे काम करता है, यह बिल्कुल अलग या व्यäगित होता है। इसकी बजाए, उनका कहना था कि काम सामाजिक क्रियाकलाप है और जिन परिसिथतियों और रूपों के अधीन और जिन परिसिथतियों तथा रूपों में लोग काम करते हैं वे सामाजिक रूप से निèर्ाारित होते हैं और कालान्तर में बदल जाते हैं। माक्र्स द्वारा इतिहास का विश्लेषण भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के लिए आवश्यक भूमि, प्राÑतिक संसाधन और प्रौधोगिकी जैसे उत्पादन के साधनों तथा उत्पादन की प्रक्रिया में लोगों के बीच कायम होने वाले सामाजिक तथा तकनीकी संबंधों के बीच के भेद पर आधारित है। ये दोनों (अर्थात उत्पादन के साधन और श्रम संबंध) मिलकर उत्पादन पद्धति की सृषिट करते हैं। माक्र्स का कहना था कि किसी भी समाज में उत्पादन पद्धति बदलती है, और यह कि यूरोपीय समाज सामंती उत्पादन पद्धति से निकल कर पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में पहुँचे। सामान्यत: माक्र्स मानते थे कि उत्पादन के साधन उत्पादन के संबंधों की अपेक्षा अधिक तेजी से बदलते हैं (उदाहरण के लिए, हम पहले इंटरनेट जैसी किसी नर्इ प्रौधोगिकी का विकास करते हैं लेकिन उस प्रौधोगिकी का नियम न करने वाले कानून बाद में ही बनाते हैं)। माक्र्स की दृषिट में आधार (आर्थिक) और ऊपरी ढाँचे (सामाजिक) के बीच का यह बेमेलपन सामाजिक विच्छेद और संघर्ष का एक प्रमुख कारण है।
‘उत्पादन के सामाजिक संबंधों से माक्र्स का तात्पर्य केवल व्यकितयों के बीच के संबंधों से ही नहीं था, बलिक उसमें लोगों के समूहों या वगो± के बीच के संबंधों का भी समावेश था। उन्होंने वगो± की परिभाषा वस्तुगत मापदंडों से, जैसे संसाधनों पर उनके अधिकार से की। माक्र्स की दृषिट में, अलग-वगो± के अलग-अलग हित हैं, जो सामाजिक विच्छेद और संघर्ष का मूल है। माक्र्स का सुझाव था कि इतिहास का अध्ययन ऐसे संघषो± के संदर्भ में ही किया जाना चाहिए।
माक्र्स की दलील थी कि पूँजीवादी उत्पादन से मनुष्य और उसके कार्य के बीच का लगाव खत्म हो जाता है और उसके फलस्वरूप श्रम भी खरीद-फरोख्त का माल बन जाता है। उनकी दृषिट में, यही पूंजीवाद को परिभाषित करने वाली विशेषता है। पूँजीवाद के पहले भी यूरोप में बाजार थे, जहाँ उत्पादक और व्यापारी अपना माल लाते और बेचते थे, लेकिन जब श्रम स्वयं ही बिकाऊ माल बन गया, जब किसान न केवल अपनी श्रम-शä बिेचने के लिए स्वतंत्रा हो गए बलिक अब चूँकि उनके पास अपनी जमीन नहीं थी इसलिए वे अपनी श्रम-शä किे बेचने के लिए मजबूर भी हो गए तब यूरोप में पूंजीवादी उत्पादन पद्धति विकसित हुर्इ। लोग अपनी श्रम-शä तिब बेचते हैं जब वे एक निशिचत समय में किए गए अपने काम का मुआवजा स्वीकार करने को तैयार होते हैं (दूसरे शब्दों में, वे अपने श्रम का उत्पाद नहीं, बलिक काम करने की अपनी क्षमता को बेच रहे हैं)। अपनी श्रम-शä बिेचने के एवज में वे पैसा पाते हैं, जो उनके लिए जिंदा रहने का सहारा होता है। जो जीने के लिए अपनी श्रम-शä बिेचने को मजबूर हैं उन्हें माक्र्स ने ‘प्रोलेटेरियन, अर्थात सर्वहारा कहा। जो व्यä इिस श्रम-शä किे खरीदता हैµऔर आमतौर पर वह कोर्इ ऐसा व्यä हिेता है जिसके पास उत्पादन के लिए भूमि तथा प्रौधोगिकी हैµवह ‘पूँजीपति या ‘बुजर्ुआ है, और पूँजीपतियों के मुकाबले सर्वहाराओं की संख्या बहुत अधिक है।
माक्र्स ने औधोगिक पूँजीपति को व्यापारी पूँजीपति से अलग बताया। व्यापारी एक बाजार में माल खरीदते हैं और दूसरे में बेचते हैं। चूँकि बाजार के अंदर पूर्ति और माँग का नियम काम करता है इसलिए अक्सर एक बाजार से दूसरे में किसी माल के दाम में फर्क होता है। तब व्यापारी अंतर-पणन (आर्बिट्रेज) का इस्तेमाल करके दोनों बाजारों के बीच के दाम के फर्क पर कब्जा कर लेने की आशा से उस बाजार में माल खरीदते हैं जिसमें उसका दाम कम होता है और उसमें बेचते हैं जिसमें वह ज्यादा होता है। माक्र्स ने आगे समझाया कि उधर औधोगिक पूँजीपति श्रमिक की मजदूरी और अपने उत्पादित माल के बाजार मूल्य के बीच के फर्क का लाभ उठाते हैं। माक्र्स का कहना था कि ठीक-ठाक सिथति वाले जीवनक्षम उधोग में आदान (इनपुट) इकार्इ-लागतें उत्पाद इकार्इ-मूल्यों से कम होती हैं, जिससे लाभ की गुंजाइश बनती है। इस अंतर को माक्र्स ने ‘अधिशेष मूल्य कहा और यह दलील दी कि अधिशेष मूल्य का स्रोत अधिशेष श्रम है। अधिशेष श्रम का मतलब है श्रमिकों को जीवित रखने की लागत और उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं की कीमत का फर्क।
पूँजीवादी उत्पादन पद्धति आरंभ में जबर्दस्त विकास की सृषिट करता है, क्योंकि पूंजीपति मुनाफों का पुनर्निवेश नर्इ प्रौधोगिकियों में करके, उत्पादन के साधनों में लगातार क्रांति लाता रहता है, जिसके लिए उसके सामने पर्याप्त प्रोत्साहन होता है। लेकिन माक्र्स की भविष्यवाणी थी कि पूँजीवाद में समय-समय पर संकट की सिथति उत्पन्न होती रहती है। उनका कहना था कि कालान्तर में पूँजीपति प्रौधोगिकियों में अधिकाधिक निवेश करते चले जाएंगे और श्रम में न्यूनातिन्यून। चूँकि माक्र्स की मान्यता थी कि श्रम से अधिग्रहण किया गया अधिशेष मूल्य मुनाफों का स्रोत है इसलिए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अर्थव्यवस्था तो विकसित होती रहेगी लेकिन मुनाफों की दर कम होती जाएगी। जब वह दर एक खास बिंदु से नीचे आ जाएगी तब उसका परिणाम मंदी के रूप में सामने आएगा, जिसमें अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रा भहराव जाएँगे। ऐसे संकट के दौर में श्रम की कीमत में भी गिरावट आएगी, और अन्तत: नर्इ प्रौधोगिकियों तथा अर्थव्यवस्था के नए क्षेत्राों में निवेश को संभव बनाएगी। माक्र्स का विश्वास था कि विकास, भहराव और विकास का यह चक्र बीच-बीच में अधिकाधिक तीव्र संकटों से ग्रस्त होता रहेगा। दीर्घ-कालीन परिपे्रक्ष्य में इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप आवश्यक रूप से पूंजीपति वर्ग अधिक समृद्ध और शäशिली होता जाएगा और सर्वहारा की विपन्नता बढ़ती जाएगी। इसलिए उनका आग्रह था कि सर्वहारा को उत्पादन के साधनों पर कब्जा कर लेना चाहिए, ताकि ऐसे सामाजिक संबंध सुनिशिचत किए जा सकें जिनसे समान रूप से प्रत्येक को लाभ हो और ऐसी उत्पादन पद्धति स्थापित हो जिसमें समय-समय पर संकट उपसिथत हो जाने की गुंजाइश न हो। यही कारण है कि उनकी दृषिट को क्रांतिकारी माना जाता है।
इस प्रकार राजनीति के संबंध में माक्र्स की दृषिट धनवानों और निर्धन श्रमिक वगो± के बीच के मूलभूत सामाजिक संबंधों और उनके इस सिद्धांत-सह-भविष्यवाणी पर आधारित है कि पूँजीवाद के फलस्वरूप उत्तरोत्तर निर्धन श्रमिक वगो± या सर्वहारा की शä कि क्षय और विपन्नीकरण होता रहता है और आखिरकार वे हिंसक राजनीतिक कार्यवाही करने को विवश हो जाते हैं और तब क्रांति हो जाती है। इस प्रकार राजनीति मूलभूत वर्ग-विभेद की अभिव्यä हिै, जिसकी परिणति उत्पादन-पद्धतियों पर अधिकार रखने वाले उच्च वगो± द्वारा समाज, अर्थव्यवस्था, राज्य और यहाँ तक कि धर्म के भी नियंत्राण को मिटाने के लिए वर्ग-संघर्ष में होती है।

(घ) SARV KALYANKARI DRISHTI सर्वकल्याणकारी दृषिट राजनीति, सबकी भलार्इ के साधन के रूप में

यह राजनीति को देखने का एक नजरिया है, जिसके अनुसार उसका प्रयोजन सबकी भलार्इ की कोशिश करना है। समस्या यह है कि किन्हीं भी दो व्यäयिें के बीच अधिकतर प्रसंगों में इस संबंध में मतैक्य नहीं हो सकता है कि सबकी भलार्इ किस बात में निहित है।
कहना यह है कि जब व्यä एिक समाज में साथ-साथ रहते हैं तो उनका सामान्य जीवन सामान्य हितों को जन्म देता है, जिनकी सिद्धि में सामान्य भलार्इ है। और इन सामान्य हितों को सिद्ध करने का प्रयत्न करना राजनीति का काम है। राजनीति को सबकी भलार्इ का साधन मानने वाला विचार बहुत पुराना है। यूनानी नगर-राज्यों में अफलातून और अरस्तू, मध्यकाल के राजनीतिक धर्मतत्वज्ञ, बेंथम और मिल जैसे उपयोगितावादी दार्शनिक, कार्ल माक्र्स और समाजवादी और ग्रीन तथा लास्की जैसे अपेक्षाÑत हाल के काल के सकारात्मक उदारवादी, ये सभी बलिक भारत में गाँधी भी मूलभूत रूप से यही दृषिटकोण प्रस्तुत करते हैं कि राजनीति सामान्य भलार्इ का औजार है। लेकिन बेशक उनमें इस संबंध में मतभेद हैं कि सामान्य भलार्इ क्या है।

सामान्य भलार्इ की यूनानी अभिधारणा

अफलातून राजनीति को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखते थे जिसके माध्यम से लोग पूरी जनता से संबंधित मामलों पर विचार करते हैं और सामान्य सार्वजनिक भलार्इ को साकार करने के निर्णय लेते हैं। अरस्तू का मानना था कि सामान्य भलार्इ एक वस्तुपरक चीज है, क्योंकि वह प्रÑति में निहित है। उन्होंने कहा : ‘पोलिस ख्राजनीतिक समुदाय, का उíेश्य केवल जीवन नहीं है, बलिक वह अच्छा जीवन था। पोलिस जीवन के न्यूनतम साधनों की खातिर असितत्व में आया लेकिन उसका असितत्व कायम है तो अच्छे जीवन की खातिर। यदि सभी समुदाय सामान्य भलार्इ के लक्ष्य को सामने रख कर चलते हैं तो राजनीतिक समुदाय, जो सभी समुदायों से ऊँचा है और जिसमें सभी का समावेश है, किसी भी अन्य समुदाय से अधिक ऊँचे स्तर पर और सबसे अधिक भलार्इ का लक्ष्य सामने रख कर चलता है। व्यä रिज्य के लिए है। राजनीति का काम भलार्इ का निर्णय करना है। अफलातून ने ‘न्याय को मनुष्य की सबसे बड़ी भलार्इ बताया और उनके अनुसार राजनीति का काम न्याय देना है। उन्होंने यह भी कहा कि सामान्य भलार्इ का लक्ष्य तब साकार होता है जब प्रत्येक व्यä जिीवन में उसे जो स्थान दिया गया है उस पर आरूढ़ रहता है। दिलचस्प बात है कि इसका मतलब यह था गुलाम बिना किसी चूँ-चपड़ के अपने मालिकों की सेवा करता रहे। सो अफलातून के अनुसार, सामान्य भलार्इ का सार, मसलन, यह है कि गुलाम की भलार्इ मालिक की सेवा करने में है और मालिक की भलार्इ पोलिस की सेवा करने में है।

सामान्य भलार्इ के संबंध में उदारवादी दृषिट

उदारवाद के अंतर्गत सामान्य भलार्इ की अभिधारणा ने प्रारंभिक से बदल कर परवर्ती सकारात्मक रूप ले लिया। प्रारंभिक उदारवादी कêरता से विश्वास करते थे कि सामान्य भलार्इ का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए केवल इतना जरूरी है कि प्रत्येक व्यä तिब तक अपने तरीके से अपना सुख प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहे जब तक कि वह दूसरों के सुख में खलल न पहुँचाए। इस मामले में उसे वह जैसा चाहे वैसा करने की पूरी आजादी देने की जरूरत है, और उससे आगे अदालतों तथा एक संविधान जैसी समाज की कुछ संस्थाएँ हों, जो विवादों और झगड़ों को निबटाएँ। अपने सिद्धांत की व्याख्या करने के लिए उन्होंने उपयोगिता अधिकतमकरण (यूटिलिटी मैकिसमाइजे़शन) की अभिधारणा आविष्Ñत की। परवर्ती उदारवादियों ने सामान्य भलार्इ की अभिधारणा के प्रति सकारात्मक और रचनात्मक रुख अपनाते हुए कहा कि यह काफी नहीं है कि प्रत्येक व्यä मिुä स्पर्धा की सिथति में अपने स्वार्थमय हित की सिद्धि के लिए अंधाधुंध प्रयत्न करे। इस तरह सामान्य भलार्इ का लक्ष्य कभी पूरा नहीं होगा। टी.एच. ग्रीन ने, जिन्हें उदारवाद को नैतिक आधारशिला प्रदान करने का श्रेय दिया जाता है, कहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे अपनी क्षमताएँ बृहत्तर सामाजिक समग्रता का अंग होने के कारण प्राप्त होती हैं। स्वतंत्रा, विवेकयुä और नैतिक जीवन के लिए व्यä किे सामान्य भलार्इ की अपेक्षाओं के अनुसार जीना चाहिए, चाहे सामान्य भलार्इ व्यä किी भलार्इ हो या न हो। अधिक वास्तविक और पारमार्थिक अर्थ में परिभाषित यही वह व्यापकता सामान्य भलार्इ है जो अधिकारों के लिए सही संदर्भ प्रस्तुत करता है। उनका कहना था कि सामान्य भलार्इ का लक्ष्य तब सिद्ध होता है जब किसी समाज में व्याप्त बाá परिसिथतियाँ मनुष्य के आंतरिक विकास के लिए अनुकूल अवस्थाएँ प्रस्तुत करती हैं। इसकी प्रापित केवल अधिकारों, स्वतंत्राता और न्याय की व्यवस्था करके नहीं की जा सकती, बलिक इसके लिए और भी बहुत-कुछ करना जरूरी हैµजैसे शिक्षा और आरोग्य के लिए सरकारी व्यवस्था करना, कारखानों और न्यूनतम मजदूरियों के संबंध में कानून बनाना, खाध पदाथो± में मिलावट के खिलाफ विधान करना आदि। इस अर्थ में सामान्य भलार्इ के लिए राज्य के लिए अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करना और उसका नियमन करना आवश्यक है, एवं जरूरी हो तो उसे मुä स्पर्धा पर भी रोक लगानी चाहिए। उदारवादी चिंतक आर.एल. टाउनी ने तो यहाँ तक सुझाव दे डाला कि सामान्य भलार्इ का लक्ष्य संसाधनों के उचित वितरण तथा सामाजिक प्रयोजन से अर्थव्यवस्था का नियमन करने से सिद्ध होता है। इस प्रकार उन्होंने मुä बाजार अर्थ-व्यवस्था की अपेक्षा कल्याणकारी राज्य का समर्थन किया।

सामान्य भलार्इ के संबंध में सामुदायिकतावादी दृषिट

पिछली सदी के मध्य में क्लासिकी उदारवाद को कुछ-कुछ पुन: प्रतिषिठत किया गया, जिसे नव-उदारवाद भी कहते हैं। यह चिंतनधारा बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों के सकारात्मक उदारवाद से दूर पड़ने वाले मूल्यों की हिमायत करती थी। कुछ-कुछ इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर 1980 और 1990 वाले दशकों में राजनीतिक समुदाय के रूप में राज्य की कल्पना को पुनरुज्जीवित किया गया। यह चिंतनधारा सामुदायिकतावाद (कम्युनिटेरिएनिज़्म) के नाम से जानी जाती है। इस धारा के सबसे महत्त्वपूर्ण चिंतकों में चाल्र्स टेलर, माइकल सैंडल और वाल्ज़र जैसे लेखक शामिल रहे हैं। सामुदायिकतावादी दृषिट व्यäगित स्वतंत्राता और समानता के साथ-साथ समुदाय की भलार्इ की ओर ध्यान देने की भी आवश्यकता की हिमायत करती है, क्योंकि इस दृषिट के धारकों को लगता है कि राजनीति-विषयक व्यäविदी उदारवादी सिद्धांतों में समुदाय के महत्त्व को पर्याप्त मान्यता नहीं दी जाती है। सामान्यत: सामाजिक रीति-रिवाजों, सांस्Ñतिक परंपराओं तथा साझा सामाजिक धारणाओं के रूप में समुदाय का असितत्व तो पहले से ही कायम रहता है। जरूरत इस बात की है कि समुदाय के असितत्व के यथार्थ की ओर
ध्यान दिया जाए और उसे संरक्षण प्रदान किया जाए। सबको खुली छूट देने वाले उदारवाद या सबकुछ नए सिरे से बनाने की हिमायत करने वाले क्रांतिकारी माक्र्सवाद के विपरीत सामुदायिकतावाद की अपेक्षा है कि जो-कुछ पहले से मौजूद है उसे महत्त्व और संरक्षण दिया जाए और उसके अंदर सामान्य भलार्इ की पहचान करके उसे प्रश्रय दिया जाए और व्यäगित राजनीतिक तथा आर्थिक स्वतंत्राता पर अत्याग्रह का त्याग कर दिया जाए। वस्तुत: सामुदायिकतावादियों का सुझाव है कि व्यä किे स्थान में ‘सामान्य भलार्इ की राजनीति को प्रतिषिठत कर देना चाहिए, और सामान्य भलार्इ का मतलब वह सब होना चाहिए जो समुदाय की स्वाभाविक जीवन-पद्धति से मेल खाता हो। सामान्य भलार्इ को तीन कसौटियों पर खरा उतरना चाहिए:
(क) उसे ऐसी सांस्Ñति संरचना के निर्माण में सहायक होना चाहिए जो व्यä यि बाजार अर्थव्यवस्था द्वारा नहीं बलिक पूरे समुदाय के मूल्यों द्वारा निर्धारित की जाए;
(ख) भलार्इ के विषय में व्यä किे निर्णय के स्थान पर समुदाय के साझे सपने को प्रतिषिठत कर देना चाहिए,
(ग) समुदाय के अंतर्गत राजनीतिक वैधता सामान्य भलार्इ का पर्याय होना चाहिए।
सकारात्मक उदारवादियों या माक्र्सवादियों की तरह सामुदायिकतावादी भी मानते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और व्यä किी सच्ची स्वतंत्राता समुदाय में ही संभव है। राजनीति का काम व्यä किी भलार्इ या उसके अèािकारों की रक्षा नहीं बलिक समग्र समाज की भलार्इ है। राजनीति को ऐसा क्रियाकलाप होना चाहिए जो भागीदारीयुä सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत समुदाय के लिए अच्छे जीवन की सांस्Ñतिक अवधारणा को प्रश्रय दे।
अपनी सर्वोदय की अभिधारणा में गाँधीजी ने जो आदर्श प्रस्तुत किया उसे भी सामान्य भलार्इ की सामुदायिकतावादी अभिधारणा ही मानना चाहिए। सर्वोदय से उनका तात्पर्य मेल-जोल-भरे कल्याण और सबके प्रति सदभावना से थे। उनका भी कहना था कि राजनीति का प्रयोजन समन्वय के सिद्धांत पर आधारित समाज की रचना है समन्वय वगो± के बीच होना चाहिए, समूहों के बीच होना चाहिए, व्यäयिें और संस्थाओं के बीच होना चाहिए और विचारों तथा विचारèााराओं के बीच भी। यह सामान्य भलार्इ छह सिद्धांतों के बल पर संपादित की जा सकती है। सिथतप्रज्ञता, अहिंसा, विकेंæीकरण, सत्याग्रह, समन्वय और विश्व-शांति।

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2 Comments

  1. We are adopting a position in everything we say or do. Whether we like it or not, the situation is political. Reason, politics is related to everything in life. What education do we have to take and whether or not to take, what work we will get and what we will get or not, how much money we will need to pay for our expenses and to run our and our family's lives, How much money we can make or how much money we should earn and from that how much do I need and how much should the state give as taxes – all these questions are political questions. Should our education and preparation for life be the same as it is for everyone or should some other people besides us have more or less opportunities than us?

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