क्या मैं राजनीति करनी चाहिए

RAJNITI KYA BURI CHIJE HE – राजनीति क्या सचमुच बुरी चीज हैठीक एक साल पहले जिस टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध पूरे देश को एकजुट किया थाछोटेबड़े सभी की आंखों में उम्मीद के सपने बोये थेजो सालभर पहले बहुत ताकतवर दिख रही थीउसी टीम अन्ना में सक्रिय राजनीति में आने के मुद्दे पर मतभेद गहरा चुके हैंटीम की प्रमुख सदस्य किरन बेदी ने कहा कि टीम को राजनीति में आने की आवश्यकता नहीं हैवे टीम को दबावकारी समूह(प्रेसर ग्रुपके रूप में कार्य करते देखना चाहती हैंउनका मानना है कि जनलोकपाल बिल के लटकाए जाने तथा एक के बाद एक उजागर हो रहे घोटालों के लिए सत्तारूढ़ पार्टी होने के नाते कांग्रेस ज्यादा जिम्मेदार हैइसके लिए उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री पर आरोप लगाए हैंदूसरी ओर अरविंद केजरीवाल का विचार है कि जनलोकपाल और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस तथा देश की प्रमुख विरोधी पार्टी भाजपा एक हैंजनलोकपाल के मुद्दे पर भाजपा का रवैया दिखावे की राजनीति थाजहां तक सीधे भ्रष्टाचार में लिप्त होने की बात हैउसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों में कोई अंतर नहीं हैपक्षविपक्ष सभी के चेहरे पर समान कालिख पुती हैकोल घोटाले पर सोनिया गांधी के तेवर गर्म होने का राज भी यही थादेश को ऐसे सार्थक विकल्प की आवश्यकता हैजो राजनीति में नैतिक का अभिस्थापन कर सकेटीम अन्ना द्वारा सक्रिय राजनीति में उतरने की घोषणा इसी नीयत से लिया गया निर्णय थाइसी संकल्प के साथ पिछला जनांदोलन संपन्न हुआ थाइस दो अक्टूबर को नए दल के नाम और नीति की औपचारिक घोषणा करने की योजना भी बनी थीलेकिन हाल ही में टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य मनीश सिशौधिया और अन्ना की ओर से बयान आया है कि राजनीतिक दल बनाने के बारे में अंतिम निर्णय जनता की राय के बाद किया जाएगाइसके लिए लिए फेसबुकईमेलपत्रव्यवहार और घरघर जाकर सर्वे द्वारा जनता की राय जानने की कोशिश की जाएगीटीम अन्ना के सबसे मुखर सदस्य कहे जाने वाले केजरीवाल का इस बाबत कोई बयान नहीं आया हैहालांकि सर्वे के जो परिणाम आए हैंउनका बहुमत राजनीतिक दल बनाने के पक्ष में बताया जाता है.

असल में जिस दिन से टीम अन्ना ने राजनीति में आने का निर्णय लिया है,देश का जनमत और स्वयं ‘टीम अन्ना’ दो हिस्सों में बंटी दिखाई पड़ती है.एक वर्ग को लगता है कि राजनीति इन दिनों ऐसे लोगों के हाथों का खिलौना बन चुकी हैजो सिवाय स्वार्थ के कुछ और सोचना ही नहीं जानतेउनसे मुक्ति का एक ही रास्ता है कि जनता की आत्मा को जगाया जाए तथा भ्रष्ट एवं निकम्मे नेताओं को सीधे चुनावी मैदान में टक्कर दी जाएदूसरा वर्ग इसके लिए तैयार नहीं हैऐसे में सवाल खड़ा होता है कि राजनीति क्या सचमुच बुरी चीज हैसमाज जिन्हें महान मानता आया हैजो इस राष्ट्र,समाज और संस्कृति के सिरजनहार कहे जाते रहे हैंक्या वे भी राजनीति को इतनी ही गंदी चीज मानते थेइतिहास के आइने में देखें तो ऐसा नहीं लगताभारतीय समाज पर रामायण और महाभारत का प्रभाव जगजाहिर है.साहित्यिक कृतियां होने के बावजूद इनके कथापात्रों के प्रति लोकश्रद्धा इतनी प्रबल है कि वे समाज में देवता के रूप में स्थापित हैंरामायण के कथानायक राम राजनीति को लोकनीति जितना ही महत्त्वपूर्ण मानते हुए लक्ष्मण को मरणासन्न रावण के पास राजनीति का ज्ञान लेने भेजते हैं.महाभारत के भीष्म पांडवों को श्रेष्ठ राजनीति का उपदेश देते हैंविदुर नीति श्रेष्ठ राजनीति का ही पर्याय हैमहावीर स्वामी और गौतम बुद्ध दोनों राजपरिवारों से आए थेउन्होंने राजकाज में सीधे हिस्सा नहीं लियालेकिन वे अपनेअपने समय में बड़े साम्राज्यों के संपर्क में रहेधर्मदर्शन के विस्तार के लिए उन्होंने उनका सहारा लियाचाणक्य प्रणीत ‘अर्थशास्त्र’ उस समय का महत्त्वपूर्ण राजनीतिक विमर्श है.
मध्यकाल में जब देश का राजनीतिक वैभव उतार पर थातब समाज के एक वर्ग में राजनीति के प्रति अरुचि देखी गईअकबर के बुलावे पर फतेहपुरी सीकरी पहुंचे कुंभनदास ने उसे सीधेसीधे संबोधित किया‘संतन को कहा सीकरी सो काम/आवतजात पनहियां टूटी बिसर गयो हरिनाम/जाको मुख देखे दुख लागे ताको करन परी परनाम.’ उन्हीं के समकालीन तुलसीदास ने भी मंथरा के मुंह से कहलवाया‘कोउ नृप होय हमें का हानिचेरि छांड़ि न होइब रानी.’ यह असल में एक दासी द्वारा अपनी रानी को उलाहना थाजिसके द्वारा वह कैकयी को अयोध्या में चल रही राजनीतिक गतिविधियों से सावधान करना चाहती हैमंथरा का उद्देश्य राजनीति से पलायन नहीं है.वह तो राजनीति की दौड़ में आगे रहने के लिए रानी कैकयी को उकसावे भरी सलाह देती हैकुंभनदास भी राजनीति का तिरस्कार नहीं करतेबल्कि सत्ता द्वारा दूसरों के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप का विरोध उनके कथन में है.यह जनसाधारण का आक्रामक सत्ता के अनाचारों दूर रहने तथा उसको अपनी नैतिक सत्ता से परचाने वाला अनुभवसिद्ध बोध था.
भारतीय वर्णव्यवस्था हालांकि क्षत्रियों को ही शासन का अधिकार देती है.इसके बावजूद यह भी सच है कि इतिहास का कोई कालखंड ऐसा नहीं रहा,जिसमें केवल और केवल क्षत्रियों का ही राज रहा होराजनीति में समाज के सभी वर्गों की समान रुचि रही हैउनीसवीं और बीसवीं शताब्दी में तो भारत का पूरा परिवेश ही राजनीतिक घटनाक्रमों से भरा हुआ थाकिसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए उससे बचाव असंभव थाराष्ट्रपिता का गौरव प्राप्त महात्मा गांधी को तो लोग याद ही इसलिए करते हैं कि उन्होंने राजनीति में उच्चतम नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए काम कियाइतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब राजनीति की भूमिका परिवर्तनकारी रही हैइसके बावजूद केजरीवाल के सक्रिय राजनीति में जाने केउन्हीं की टीम द्वारा विरोध के क्या कारण हो सकते हैंयही बड़ा सवाल हैजिसमें वर्तमान राजनीति की पेचीदगियां छिपी हैंसाथ में उसमें बदलाव की कामना करनेवालों की संकल्पनिष्ठा और उनका डर भीआजादी के बाद भारत में पूंजीवाद और कहीं सफल हुआ हो या नहींवह लोगों को डरानेएकदूसरे के प्रति अविश्वास पैदा करने तथा लोगों के मन में भय और असुरक्षाबोध पैदा करने में पूरी तरह कामयाब रहा हैइससे लोगों में यह संदेश गया कि अपने बूते कुछ हो ही नहीं सकतादावा दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश कापरंतु डरे हुए लोग मतदान से पहले किसी दल या मतदाता विशेष के पक्षविपक्ष में गंभीर चर्चा शायद ही कर पाते हैं.
ऐसे भयभीत और दिगभ्रमित समाज में एकजुट होने के लिए जिस विश्वास और संकल्पसामथ्र्य की आवश्यकता पड़ती हैआखिर वे वह आएं कहां से!राजनेता इसलिए डरे हुए हैं कि अरविंद केजरीवाल यदि सीधे उनकी साख पर उंगली उठाएंगे तो उनकी नैतिक छवि की काट हेतु नए मुद्दे कहां से लाएंगे?ऊहापोह की स्थिति टीम अन्ना के साथ भी हैउन्हें लगता है कि चुनाव लड़ने के लिए स्वच्छईमानदार और चरित्रवान छवि वाले नेता आएंगे कहां सेऔर जिन लोगों पर वे भरोसा करके राजनीति के समर में उतरेंगेवे उनके भरोसे को कब तक कायम रख पाएंगेयह बड़े जतन से पैदा किया गयाबनावटी डर हैइसे पैदा करने और बनाए रखने वाली वे धार्मिकराजनीतिक और आर्थिक शक्तियां हैं जो लोगों को बांटे रखकर अपना उल्लू सीधा करना चाहती हैंजबकि अच्छी राजनीति के लिए अच्छे और बड़े नैतिक संकल्प की आवश्यकता पड़ती हैदुरवस्था से मुक्ति के लिए संकल्प का धनीनैतिक और निष्ठावान केवल एक व्यक्ति पर्याप्त हैजिसका लोकतंत्र में अटूट विश्वास हो और जो अतीत की अपनी सभी दुर्बलताओं को भुलाकर वह परिवर्तन को अपना एकमात्र लक्ष्य बना लेगांधी जैसे नेता सैकड़ों वर्षों में जन्मते होंइसलिए उनकी उम्मीद न भी करेंपरंतु विश्वनाथ प्रताप सिंह का उदाहरण तो ठीक हमारे सामने हैराजीव गांधी सरकार को हटाने के लिए उनके सामने भी उनके सामने एकमात्र भ्रष्टाचार का ही मुद्दा था.
केवल सत्तासीन हो जाना राजनीति नहीं हैसत्ता को लोकोन्मुखी बनाए रखने के लिए किया जाने वाला संघर्ष भी राजनीति ही हैइसलिए टीम अन्ना अपने आंदोलन को चाहे जितना अराजनीतिक कहेवह राजनीति का हिस्सा ही कहा जाएगाबुरों को सत्ताच्युत करअच्छे लोगों को जनमत के जरिये सत्तासीन करने की राजनीतिइसलिए यहां अनमन्यस्कता से काम नहीं चलने वालाएक ओर तो हम यह मानते हैं कि राजनीति भले लोगों का काम नहीं हैपर यदि कोई संकल्परथीऐसा करने की कोशिश भी करता है तो हम डर जाते हैं कि ऐसी राजनीति के लिए अच्छे और ईमानदार लोग आएंगे कहां से!यहीं बाजारवादी शक्तियों द्वारा फैलाए गए जाल को देखा जा सकता है.अपने स्वार्थ के लिए उन्होंने लोगों को भयअसुरक्षा और अविश्वास के वातावरण में जीने को विवश कर दिया हैआपाधापी के बीच परस्पर अविश्वासी और डरे हुए लोग चुनावों में राष्ट्रीय हित के बजाय निजी स्वार्थ से प्रभावित हो ऐसे लोगों को चुन लेते हैं जो राजनीति में केवल स्वार्थसिद्धि के लिए आते हैंलोकप्रिय बने रहने के लिए झूठ और लालच के आधार पर अपनी छवि बनाते हैंइसी कारण वे खुद भी भयभीत हैंऐसे लोगों से बनी सरकार भी हमेशा असुरक्षाबोध से ग्रस्त रहती हैपरिणामस्वरूप लोकहित के कार्यक्रमों का ईमानदार कार्यान्वन उसके लिए संभव नहीं होताबाजारवादी शक्तियां बड़ी आसानी से उन्हें अपनी कठपुतली बना लेती हैं.
बहरहालटीम अन्ना राजनीति में आती है या नहींयह उसका निजी मामला हैउनके पास बेहतर राजनीति का कोई ठोस विकल्प भी नहीं हैअरविंद केजरीवाल ने अपनी पुस्तक ‘स्वराज’ में जो लिखा है वह बहुत घिसापिटा है.स्वयं अन्ना बारबार ‘लोकनीति’ शब्द को दोहराते हैंइस बारे में बता दें कि लोकनीतिलोकतंत्र का पर्याय न होकर उसका सीधा विलोम हैयह प्राचीन कुलीनतंत्र का ही लुभावना रूप हैलोकनीति के एक पैरोकार विनोबा भावे लोकतंत्र को भीड़तंत्रजनता को भेड़ और उम्मीदवार को गड़ेरिया कह कर उसकी खिल्ली उड़ाया करते थे, ‘‘एक भाई पूछ रहे थे, ‘हम किसको वोट दें?’ऐसा सवाल कोई पूछता है तो मन में आता हैक्या हम दूसरों को वोट देने के लिए जन्मे हैंइसका अर्थ यही हुआ कि ‘अरे भेड़ोतुम्हें कौनसा गड़ेरिया चाहिएजो गड़ेरिया तुम्हें प्रिय होगा वही रखा जाएगा.’ हम कहते हैं, ‘हम भेड़ नहीं हैंहमें कोई गड़ेरिया नहीं चाहिए.’ एक कहता है, ‘यह गड़ेरिया अच्छा हैइसे चुनो!’ दूसरा कहता है, ‘हमें चुनो!’ हम कहते हैं कि ‘आप गड़ेरिये हैं या बुरेहम नहीं जानतेलेकिन न हम भेड़ हैंन हमें आपकी जरूरत है.’’
इसलिए टीम अन्ना यदि सक्रिय राजनीति में आती है तो उसके सामने ‘लोकतंत्र’ और ‘लोकनीति’ में से किसी एक को चुनने की चुनौती भी होगी.लोकनीति गांधीवादी विचारधारा का राजनीतिक संस्करण हैयह न पहले कारगर थीआगे कारगर हो पाएगीयह कुलीनतंत्र का लुभावना मुखौटा है.किसी को संदेह न होइसलिए इस बारे में विनोबा के कुछ और विचार जान लेते हैं, ‘‘चुनाव को कितना ही महत्त्व क्यों न दिया जाएआखिर वह ऐसी चीज नहीं हैकि उससे समाज के उत्थान में हम कुछ मदद पहुंचा सकेंवह डेमोक्रेसी में खड़ा किया हुआ एक यंत्र हैएक ‘फार्मल डेमोक्रेसी’औपचारिक लोकसत्ता आई हैजो मांग करती है कि राजकार्य में हर मनुष्य का हिस्सा होना चाहिए….यह तो हर कोई जानता है कि ऐसी कोई समानता परमेश्वर ने पैदा नहीं की है कि जिसके आधार पर एक मनुष्य के लिए जितना एक वोट हैउतना ही वह दूसरे मनुष्य के लिए भी होइस बात का हम समर्थन कर सकेंलेकिन यह स्पष्ट है कि पंडित नेहरू को एक वोट हैतो उनके चपरासी को भी एक ही वोट हैइसमें क्या अक्ल हैहम नहीं जानते.’’ ऐसी लोकनीति के समर्थक और व्याख्याकार अकेले विनोबा भावे नहीं थेउस समय के प्रमुख गांधीवादी विचारक दादा धर्माधिकारीकुमारप्पाशंकरराव देवधीरेंद्र मजुमदार आदि बड़े गांधीवादी नेता ऐसी ही व्याख्या द्वारा लोकतंत्र के प्रति अपना खुला विरोध जता रहे थे.
टीम अन्ना की ओर से सबसे हालिया बयान में कहा यह जा रहा है कि वह राजनीति और जनांदोलन दोनों दिशाओं में साथसाथ आगे बढ़ेगीऐसे में उसके सामने बड़ी चुनौती लोकतांत्रिक निष्ठा दर्शाने की भी होगीयदि वह इस काम में असफल रहती हैयदि वह लोकतंत्र और लोकनीति में अंतर नहीं कर पाती है तो उसके आंदोलन की आड़ में सामंती शक्तियों के फलनेफूलने का ही अंदेशा रहेगाइसलिए चुनौती न केवल देश को बेहतर राजनीति विकल्प देने कीबल्कि अपने दिलोदिमाग दुरस्त करने की भी होगी.बहरहालसक्रिय राजनीति में आने की घोषणामात्र से टीम अन्ना में जो मतभेद उभरे हैंउनसे एक संकेत तो जनता के बीच जा ही रहा है कि राजनीति भले लोगों का काम नहींहालांकि यह धारणा समाज में कमोबेश पहले भी थीलेकिन सालभर पहले टीम अन्ना ने जो उम्मीद बंधाई थी,जिसके कारण हजारों युवा घरों से बाहर निकले थेइस निर्णय से बहुत संभव है कि वे हतोत्साहित होंयदि सचमुच ऐसा होता है तो यह आंदोलन की पराजय मानी जाएगी.

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